गहरा अंधेरा और घना जंगल। रात के तीसरे पहर में बस सियारों की डरावनी आवाज़ और पत्तों की सरसराहट सुनाई दे रही थी। दूर किसी पहाड़ी की चोटी पर एक प्राचीन मंदिर था, जिसे लोग "दिव्य शिला मंदिर" कहते थे।
गाँव में एक अजीब मान्यता थी—इस मंदिर में वर्षों से कोई प्रवेश नहीं कर सकता था। जो भी गया, वह या तो वापस नहीं लौटा या फिर इतना भयभीत हुआ कि कुछ बोल नहीं सका। मगर फिर भी, एक व्यक्ति इस अंधेरे में अकेला उस मंदिर की ओर बढ़ रहा था।
उसके मन में न डर था, न संशय। उसके कदमों में दृढ़ता थी, और आँखों में भक्ति की अग्नि। मगर जैसे ही उसने मंदिर के द्वार पर कदम रखा, ज़मीन हिलने लगी, मंदिर की घंटियाँ खुद-ब-खुद बज उठीं, और गर्भगृह के भीतर से एक तेज़ रोशनी फूटने लगी…
ईश्वर की परछाईं" (Ishwar Ki Parchayi)
वह व्यक्ति था आर्यन—एक निर्धन ब्राह्मण, जिसने अपने गुरु से सुना था कि इस मंदिर में स्वयं भगवान का वास है। वर्षों पहले यहाँ पूजा-अर्चना होती थी, लेकिन अचानक मंदिर के कपाट बंद हो गए। किसी को नहीं पता था कि ऐसा क्यों हुआ।
आर्यन का विश्वास था कि अगर सच्चे मन से भगवान का स्मरण किया जाए, तो वह अवश्य प्रकट होते हैं। उसने अपने हाथ में एक दीपक लिया और गर्भगृह की ओर बढ़ा।
भीतर घना अंधेरा था, लेकिन जैसे ही उसने दीपक आगे बढ़ाया, वहाँ एक पत्थर की विशाल मूर्ति दिखी। यह मूर्ति भगवान विष्णु की थी, लेकिन इतनी धूल और मिट्टी से ढकी थी कि वर्षों से किसी ने इसे नहीं देखा था।
आर्यन ने अपने वस्त्र से मूर्ति को साफ़ करना शुरू किया। जैसे ही उसने भगवान का चेहरा साफ़ किया, एक अद्भुत चमत्कार हुआ! मूर्ति की आँखों से एक दिव्य प्रकाश फूटा, और पूरी गुफा रोशनी से भर गई।
तभी पीछे से एक गंभीर और गूँजती हुई आवाज़ आई—
"आर्यन, तूने मेरी परछाईं देख ली। अब मैं तुझे अपना दर्शन भी दूँगा।"
आर्यन ने मुड़कर देखा, और उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं। मूर्ति के सामने एक दिव्य पुरुष खड़ा था—नीले रंग का शरीर, चार भुजाएँ, मुकुट पर चमकती किरणें। यह स्वयं भगवान विष्णु थे!
आर्यन भावविह्वल हो गया। उसने आँखों में आँसू लिए हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
भगवान ने मुस्कुराते हुए कहा, "इस मंदिर की शक्ति तुम्हारी भक्ति से पुनः जाग्रत हुई है। अब यह मंदिर फिर से भक्तों के लिए खुल जाएगा। जाओ, गाँव वालों को बुलाओ और इसे एक बार फिर जीवंत करो।"
आर्यन ने गाँव लौटकर सबको बुलाया। धीरे-धीरे मंदिर में फिर से पूजा-अर्चना शुरू हुई, और वह वीरान पड़ा स्थल एक बार फिर भक्तों के आस्था का केंद्र बन गया।
सारांश
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि भक्ति केवल मन से नहीं, कर्म से भी होनी चाहिए। आर्यन ने न केवल विश्वास किया, बल्कि भगवान की मूर्ति को साफ़ करके अपनी श्रद्धा को कर्म में बदला। भगवान ने उसकी भक्ति को स्वीकार किया और उसे साक्षात दर्शन दिए। जब भक्ति सच्ची होती है, तो स्वयं ईश्वर उसके मार्ग में प्रकट होते हैं।
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