शिव का वरदान" (Shiv Ka Vardan)

रात के दूसरे पहर की निस्तब्धता में एक घोड़े की टापों की गूँज सुनाई दी। चारों ओर गहरा अंधेरा था, और बीच जंगल से एक अकेला घुड़सवार तेज़ी से पहाड़ियों की ओर बढ़ रहा था।

उसके चेहरे पर दृढ़ संकल्प था, लेकिन आँखों में बेचैनी झलक रही थी। उसके मन में एक ही सवाल था—"क्या वह समय पर पहुँच पाएगा?"

घना जंगल समाप्त होने को था, और अब सामने एक विशाल पर्वत दिख रहा था। इसी पर्वत की चोटी पर स्थित था "चंद्रगुप्त मंदिर"—एक रहस्यमयी स्थान, जिसके बारे में कहा जाता था कि वहाँ साक्षात भगवान शिव विराजमान हैं।

लेकिन वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं था। क्योंकि मंदिर के दरवाज़े हर सौ साल में सिर्फ एक रात के लिए खुलते थे… और यह वही रात थी!


शिव का वरदान" (Shiv Ka Vardan)

शिव का वरदान" (Shiv Ka Vardan)


वह घुड़सवार कोई और नहीं, बल्कि वीरेंद्र सिंह था—राज्य का सबसे बहादुर योद्धा। वह वर्षों से इस दिन का इंतज़ार कर रहा था। राजा ने उसे यह दायित्व सौंपा था कि वह मंदिर जाकर भगवान शिव से राज्य की रक्षा का वरदान लेकर आए।

जैसे ही वह पहाड़ की चोटी पर पहुँचा, उसकी साँसें तेज़ हो गईं। सामने विशाल शिवलिंग था, जो चाँद की रोशनी में चमक रहा था। लेकिन मंदिर का मुख्य द्वार अब भी बंद था।

वीरेंद्र ने ज़ोर से प्रार्थना की—

"हे महादेव! मैं आपकी शरण में आया हूँ। कृपया अपने दर्शन दें!"

अचानक, आकाश में तेज़ बिजली कड़की, और धरती हिलने लगी। मंदिर के विशाल दरवाज़े धीरे-धीरे खुलने लगे। वीरेंद्र ने घोड़े से उतरकर शिवलिंग के पास जाकर जल चढ़ाया और पूरी श्रद्धा से प्रणाम किया।

तभी शिवलिंग से दिव्य प्रकाश निकला, और स्वयं भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी जटाओं से गंगा प्रवाहित हो रही थी, और उनका तीसरा नेत्र हल्की अग्नि से प्रकाशित था। उनके गले में नाग लिपटा था, और उनके त्रिशूल से दिव्य किरणें फूट रही थीं।

शिवजी ने मुस्कुराते हुए कहा, "वीरेंद्र, तुम्हारी भक्ति और साहस देखकर मैं प्रसन्न हूँ। जो भी तुम मांगना चाहते हो, माँग लो।"

वीरेंद्र ने हाथ जोड़कर कहा, "हे महादेव! मेरे राज्य पर संकट मंडरा रहा है। कृपया हमें आशीर्वाद दें कि हमारी प्रजा सुरक्षित रहे और राज्य समृद्ध हो।"

भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया और ज़मीन पर टेका। तुरंत ही एक दिव्य कवच प्रकट हुआ, जो पूरी नगरी को अदृश्य सुरक्षा कवच में बदलने वाला था। शिवजी ने कहा—

"जब तक यह कवच रहेगा, कोई भी शत्रु तुम्हारे राज्य को हानि नहीं पहुँचा सकेगा। जाओ, और धर्म का पालन करो!"

इतना कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। वीरेंद्र ने मंदिर के सामने प्रणाम किया और तेज़ी से राज्य की ओर लौट पड़ा।

अगली सुबह जब वह वापस पहुँचा, तो राजा और प्रजा ने उसका भव्य स्वागत किया। जैसे ही उसने भगवान शिव द्वारा दिया गया कवच नगर की सीमा पर स्थापित किया, एक अदृश्य ऊर्जा पूरे राज्य को घेरने लगी।

इसके बाद, राज्य में कोई भी बाहरी शत्रु हमला करने की हिम्मत नहीं कर सका। वीरेंद्र की भक्ति और साहस से समस्त राज्य सुरक्षित हो गया।


सारांश

इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सच्ची श्रद्धा और निःस्वार्थ समर्पण से कोई भी वरदान पाया जा सकता है। भगवान शिव केवल भोग या पूजा से नहीं, बल्कि भक्त के साहस और सच्चे कर्मों से प्रसन्न होते हैं। वीरेंद्र ने अपने कर्तव्य और भक्ति के बल पर भगवान शिव से राज्य की रक्षा का वरदान प्राप्त किया।