सच का रास्ता (Sach Ka Raasta)

रात का अंधेरा घना हो चुका था। घड़ी की सुइयाँ रात के 12 बजा रही थीं। गाँव के बुजुर्ग रामलाल चौपाल से अपने घर की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक रास्ते में उन्होंने देखा कि एक नौजवान किसी झाड़ी के पीछे कुछ छुपा रहा था। उनके कदम ठिठक गए।

सच का रास्ता (Sach Ka Raasta)


"कौन है वहाँ?" रामलाल ने कड़क आवाज़ में पूछा।

नौजवान डर से काँपने लगा। उसकी आँखों में डर साफ़ झलक रहा था।

"मैं... मैं... कुछ नहीं..." वह घबराया।

रामलाल ने पास जाकर देखा तो उसके हाथ में एक मोटा बटुआ था।

"ये बटुआ कहाँ से आया? सच-सच बता बेटा, झूठ मत बोलना।"

नौजवान का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। वह धीरे-धीरे रोने लगा और फिर कांपते हुए कहने लगा, "बाबा, मुझे माफ़ कर दो... मैंने यह बटुआ सड़क पर पड़ा पाया, इसमें बहुत सारे पैसे हैं। मैं इसे घर ले जाना चाहता था लेकिन मेरा दिल धड़क रहा था...।"

रामलाल ने उसकी पीठ थपथपाई, "बेटा, याद रखो, जो चीज़ हमारी नहीं है, वह हमें नहीं रखनी चाहिए। चलो, इसे उसके असली मालिक तक पहुँचाते हैं।"

अगली सुबह गाँव के मुखिया के पास बटुआ लौटाया गया। पता चला कि यह बटुआ शहर से आए एक व्यापारी का था, जिसे उसने गलती से गिरा दिया था। व्यापारी ने नौजवान की ईमानदारी से प्रभावित होकर उसे इनाम दिया। लेकिन नौजवान ने इनाम लेने से इनकार कर दिया और बोला, "मेरे लिए यही इनाम काफी है कि मैंने सही रास्ता चुना।"

निष्कर्ष (Moral):

सच्चाई का रास्ता कठिन जरूर होता है, लेकिन अंत में वही सही होता है।