सोमलिक की मेहनत और भाग्य का रहस्य (Somlik Ki Mehnat Aur Bhagya Ka Rahasya)

एक नगर में एक कुशल कारीगर सोमलिक रहता था। वह अन्य कारीगरों से अधिक मेहनत करता था, और उसके बनाए कपड़े भी बेहतरीन होते थे। लेकिन इसके बावजूद उसे मेहनत के अनुरूप पैसा नहीं मिलता था। धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि इस नगर में उसके हुनर की सही कद्र नहीं हो रही है। उसने सोचा कि किसी बड़े नगर में जाकर अपनी कला का उचित मूल्य प्राप्त करना चाहिए।

कुछ लोगों ने उसे समझाया, "धन भाग्य पर निर्भर करता है। अगर तुम्हारे भाग्य में धन नहीं है, तो कहीं भी चले जाओ, तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। इसलिए यहीं रहकर काम करो।"

सोमलिक की मेहनत और भाग्य का रहस्य (Somlik Ki Mehnat Aur Bhagya Ka Rahasya)


लेकिन सोमलिक को भाग्य से अधिक परिश्रम पर विश्वास था। उसे लगता था कि मेहनत करने वालों का ही भाग्य साथ देता है। यही सोचकर वह एक बड़े नगर चला गया और वहां दिन-रात मेहनत करने लगा। उसकी मेहनत रंग लाई, और दो वर्षों में उसने पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं कमा लीं। अब वह खुशी-खुशी अपने नगर लौटने लगा।

सोमलिक का सपना और पहला धन का नुकसान

रास्ते में रात हो गई, तो वह एक बड़े वृक्ष के नीचे सो गया। सोते समय उसने सपना देखा—
सपने में दो पुरुष बातें कर रहे थे।
पहला पुरुष बोला, "सोमलिक के भाग्य में अधिक धन नहीं है, फिर तुमने उसे पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं क्यों दीं?"
दूसरा पुरुष बोला, "मैं मेहनत करने वालों को उनकी मेहनत का फल देता हूं। लेकिन अंतिम निर्णय तो तुम्हारे हाथ में है।"

सोमलिक घबराकर उठा और जल्दी से अपनी पोटली टटोली। वह हैरान रह गया—पोटली पूरी तरह खाली थी! उसकी मेहनत की सारी कमाई गायब हो चुकी थी। वह बेहद दुखी हुआ और सोचने लगा, "अब मैं किस मुंह से घर जाऊंगा?"

वह फिर से उसी नगर लौटा और इस बार पहले से भी अधिक मेहनत करने लगा। केवल एक वर्ष में ही उसने फिर से पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं कमा लीं। अब वह बहुत सतर्क था और इस बार घर जाते समय रास्ते में नहीं रुका।

फिर वही सपना और फिर से धन चोरी

चलते-चलते जब वह उसी वृक्ष के पास पहुंचा, तो दूर से उसे वही दो पुरुष फिर से दिखे। सोमलिक छिपकर उनकी बातें सुनने लगा।
पहला पुरुष बोला, "सोमलिक के भाग्य में अधिक धन नहीं है, फिर तुमने उसे दोबारा पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं क्यों दे दीं?"
दूसरा बोला, "मैं मेहनती को उसकी मेहनत का फल देता हूं, लेकिन अंतिम निर्णय तुम्हारा ही रहेगा।"

सोमलिक डरते-डरते अपनी पोटली टटोलने लगा—इस बार भी उसकी सारी मुद्राएं गायब थीं!

अब वह निराश हो चुका था। उसे लगा कि जीवन में इतनी मेहनत करने का कोई लाभ नहीं है। वह दुखी होकर आत्महत्या करने के लिए एक ऊँची पहाड़ी से कूदने ही वाला था कि अचानक एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए।

दिव्य पुरुष का रहस्योद्घाटन

दिव्य पुरुष बोले, "रुको सोमलिक! तुम्हारे भाग्य में अधिक धन नहीं लिखा है। इसलिए मैं तुम्हारा धन चुरा लेता था। आत्महत्या करना पाप है, इसे कभी मत सोचना।"

सोमलिक ने दुखी होकर कहा, "अब मैं अपने परिवार के पास कैसे जाऊंगा? मैं मेहनत से धन कमाता हूं, लेकिन वह बार-बार गायब हो जाता है।"

दिव्य पुरुष ने उसे एक वरदान मांगने के लिए कहा। सोमलिक बोला, "मुझे बहुत सारा धन चाहिए।"

दिव्य पुरुष ने कहा, "लेकिन तुम्हारे भाग्य में धन का भोग नहीं लिखा है। अगर तुम धन पाएंगे भी, तो उसका उपयोग नहीं कर पाओगे।"

सोमलिक बोला, "इस संसार में धन ही सबसे महत्वपूर्ण है। जिसके पास धन होता है, उसी को मान-सम्मान मिलता है। कृपया मुझे बहुत सारा धन दे दीजिए।"

दिव्य पुरुष मुस्कुराए और बोले, "ठीक है। लेकिन पहले तुम नगर लौटो और वहाँ दो व्यक्तियों—'गुप्तधन' और 'उपयुक्तधन'—से मिलो। उनसे सीखकर मुझे बताओ कि तुम्हें कैसा धन चाहिए।"

गुप्तधन और उपयुक्तधन की सीख

सोमलिक नगर लौटा और सबसे पहले 'गुप्तधन' नामक व्यक्ति के घर पहुँचा। गुप्तधन बहुत अमीर था, लेकिन वह किसी को भी अपने धन में भागीदार नहीं बनाता था। वह बहुत कंजूस था और किसी की मदद नहीं करता था। सोमलिक ने देखा कि गुप्तधन के पास ढेर सारा धन था, लेकिन फिर भी वह दुखी रहता था।

अगले दिन सोमलिक 'उपयुक्तधन' के घर गया। वहाँ का माहौल बिलकुल अलग था। उपयुक्तधन एक साधारण व्यक्ति था, लेकिन वह अपनी आय का कुछ हिस्सा जरूरतमंदों की मदद के लिए खर्च करता था। वह हमेशा प्रसन्न रहता था और समाज में उसका बहुत सम्मान था।

सोमलिक ने देखा कि जब उपयुक्तधन को धन की जरूरत पड़ी, तो राजा ने उसकी समाज सेवा देखकर उसे इनाम के रूप में बहुत धन दिया। उसने अपना कर्ज भी चुका दिया और पहले से अधिक संपन्न हो गया।

सोमलिक का सही निर्णय

अब सोमलिक को समझ आ गया कि "संचय रहित धन" (उपयुक्त धन) ही श्रेष्ठ है। केवल धन संचय करने से कोई सुखी नहीं होता, बल्कि उसका सही उपयोग ही उसे मूल्यवान बनाता है।

उसने दिव्य पुरुष से कहा, "मैं उपयुक्तधन जैसा बनना चाहता हूँ, ताकि मेरा धन सही कार्यों में लगे और मैं भी सम्मानित जीवन जी सकूँ।"

शिक्षा

"कर्म भाग्य का निर्माता है। वही धन श्रेष्ठ है जिसका उपयोग अच्छे कार्यों में हो।"